Wednesday, Dec 25, 2024 | Last Update : 01:15 PM IST
गणेश शंकर विद्यार्थी
श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी का जन्म तीर्थ राज प्रयाग (इल्ल्हाबाद ) मे २६ अक्टूबर १८९० इसवी को अपनी ननिहाल मे हुआ था | उनके पिता श्री जयनारायण एक सुशिक्षित , उत्तम विचारो से ओत्त- पोत्त राष्ट्र भक्त एवम परोपकारी थे | कुछ वर्षो तक गणेश जी अपने नाना-नानी एवं माता गोमती देवी के साथ ननिहाल में ही रहे |उनके नाना श्रीसूरज प्रसाद उन दिनों सहारनपुर में सहायक जेलर थे | श्री गणेश शंकर डबल रोटी खाने के बडे शोकीन थे | उन दिनों जेल के कैदियों से ही डबल रोटिया बनवाई जाती थी | वही रोटी बाजार मे बिकती थी पर गणेश जो डबल रोटी खाते थे वह जेल से ही सीधे उनके घर पहुचती थी | जब वह उसे देखते थे तो गर्व महसूस करते थे | उनकी माँ ओर नाना- नानी को क्या पता था की इस बालक को जीवन मे जेल की ही रोटिया खानी पडेगी इसलिये यह अभी से जेल की बनी हुई रोटिया को खाने का अभ्यास कर रहा है |
जब गणेश ४ वर्ष के थे | तो इनके पिता इन्हे अपने साथ मुगावली ले गये | उनकी इच्छा थी थी की उनका पुत्र अच नागरिक बने | बालक गणेश ने पाचवी कक्षा टेक पहुचते-पहुचते उर्दू का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया | पिता हिंदी प्रेमी थे अत: वह गणेश को उर्दू की अपेक्षा हिंदी बड़ी सरल लगी उन्होने स्वं आगे चलकर लिखा था की मुझे हिंदी बड़ी सरल लगती थी | हिंदी पढने मे मेरा मन भी अधिक लगता था | मैने उन्ही दिनों हिंदी के अखबारों को पडकर बहुत सी सामाजिक ओर राजनीति बातो का ज्ञान प्राप्त कर लिया था |
समय के साथ गणेश ने १९०७ मे द्वितीय श्रेणी से हाई स्कूल उत्तीर्ण किया ओर फिर एफ.ए की पढाई शारीरिक अश्मता के कारण बीच मे ही छोड़ दी | गणेश शंकर जी को बेकार बैठे रहना पसंद नही था अत: उन्होने पी. पी. एन स्कूल मे अध्यापन का कार्य करना शुरू किया वेतन था बीस रूपये मासिक | गणेश निया किसी के सामने झुकना ओर रोटी के लिये मानवता बेचना नही सीखा था | वह हमेशा गंभीर ओर निर्भय रहते थे | उन्ही दिनों पंडित सुंदर लाल जी का एक अखबार " करमवीर " निकलता था | युवक गणेश जी उसे पड़ते थे जिसमे गौरी सरकार के विरुद्ध तीखी आलोचनाये छपा करती थी | एक दिन स्कूल के प्रधान ने गणेश को "करमवीर " पड़ते हुई देख लिया ओर चिल्लाये ओर बोली इस अखबार को जला दो पर गणेश भला क्यों जलाने लगे " करमवीर " तो उनका प्रिये अखबार था ओर सुंदर लाल उनके मन पसंद गुरु थे |
तपाक से उत्तर दिया - मै अखबार को तो नही जला सकता ' नौकरी से त्याग पात्र अवश्य दे सकता हू |ओर नौकरी छोड़ दी |
सन १९०९ टेक गणेश अच्छे लेखक बन चुके थे | उनके लेख करमवीर, सवराज ओर अम्युध आदि समाचारों - पत्रों मे छपा करते थे | जो बहुत सराहे जाते थे | अपनी लेखनी के बल पर गणेश को अपने समय की श्रेष्ठ मासिक पत्रिका "सरस्वती " जिसके प्रधान संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी थे उसमे कार्य करने का गौरव मिला | जीन दिनों गणेश "सरस्वती " मे कार्य कर रहे थे, उन्ही दिनों "अम्युध" मे सहायक सम्पादक की जगह खाली हुई इसके संस्थापक एवम सम्पादक श्री मदन मोहन मालवीय जी थे | सौभाग्य वश ये जगह गणेश को मिल गई | इस पत्रिका के माध्यम से गणेश का नाम पत्रकारिता के छेत्र मे बहुत अदिक चमक गया था उसने कुछ समय बाद एक स्वम का अपना साप्ताहिक पत्र निकला जिसकी आर्थिक सहायता सामाजिक कार्यकर्ता श्री काशी प्रकाश ने की ओर पत्र का नाम रखा "प्रताप "| यही "प्रताप" जिसने भारतीय जन - मानस मे राष्ट्र की आज़ादी हेतु कृत संकल्प रह कर लडने , गौरी सरकार के काले कारनामे को जन - मानस मे राष्ट्र की आज़ादी हेतु कृत संकल्प रह कर लडने को जनता के समक्ष प्रकट करने अमीरों ओर जमींदारो के अत्याचारों का पर्दा फाश करने , थानेदारो दवारा अनपढ़ एवम भोली जनता पर अत्याचार किये जा रहे जुल्मो का भांडा फोड़ करने ,गरीबो किसानो और मजदूरो के घर मे पहुच कर उनके भीतर स्वतंत्रता के भाग जगाने मे अमूल्य ,अतुलनीय व वन्दनीय सहयोग दिया |
जिसके कारण ये लोग उनके शत्रु बन गए |
" प्रताप " पर मुकदमे दायर किये जाने लगे और कई बार गणेश को जेलों की हवा भी खानी पड़ी | १३ अप्रैल १९१९ के जल्लिंवाला बाग़ हत्या कांड ने भारत को अच्म्बित कर दिया तथा भारतीय जन मानस मे अंग्रेजी सरकार का आतंक बैठ गया अनेक समाचारों पत्रों ने इस हर्दिये विदारक घटना को डरते डरते छापा परन्तु " प्रताप " ने इस निष्कृष्ट कार्य को बड़ी निर्भीकता से छापा जिससे सरकार "प्रताप " को मधुमखियो का छता समझने लगी अब "प्रताप " के माध्यम से जनता के बीच " प्रताप " और "गणेश शंकर " दोनों एक दूसरे के पूरक हो गये थे | असहयोग अन्दोलें मे " प्रताप " की सेवाए सदा स्मरण की जाये गी |
इसी दोरान गणेश की भेट नेहरु गाँधी और भगत सिंग से भी हुई और भगत सिंह ने तो गणेश शंकर के साथ " प्रताप " मे लम्बे समः टेक कार्य भी किया |
१९१३ मे भगत सिंह और उनको साथियों को अस्सेम्ब्ली बहम विस्फोट के मामले मे फासी की सजा सुनाई गई थी और २३ मार्च को उनको फासी पर लटका दिया गया | २४ मार्च को सवारे जब ये समाचार सारे देह मे फैला तो शोक सागर उमड़ पड़ा | कई जगे दंगे हुई और दंगो ने साम्प्रदायिकता का रूप धारण कर लिया | हिन्दू और मुस्लिम मानव से दानव मे परिवर्तित हो गये थे | गणेश शंकर से नही रहा गया और राष्ट्र की एकता को भस्म होते हुई देख वह दंगे की आग बुझने के लिये घर से निकल पडे और वह उस दिन कितने हे हिन्दू और मुलिमो को मौत से बचने मे सफल हुई |
२५ मार्च कुछ मुसलमान बलम सीधा करके उनके और झपटे साथ के मुसलमान स्वम सवेक गरज उठे " ख़बरदार ! ये वेही गणेश शंकर है जिन्होने हजारो मुसलमानों की जान बचाई है इनकी जान लेना दोक्हज मे जाने के बराबर है " गणेश शंकर को देखते ही वह जंगली भेडियो की तरह उनपर टूट पडे और गणेश को धरती की गोद मे सुला दिया | धरती रक्त रंजित हो गई | भारत के इतिहास मे सम्प्रदियकता को मिटाने के लिये हिन्दू मुसलमानों मे प्रेम और प्यार बनाये रखने के लिये आप को इसे बडे बलिदान का उदहारण और कही नही मिलेगा किन्तु आज कांग्रेस का कोई नेता विद्यार्थी का नाम भी नहीं लेता |
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