महाशिवरात्रि शिवलिंग के अभिषेक का महत्व

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महाशिवरात्रि शिवलिंग के अभिषेक का महत्व

शिवलिंग की पूजा से जीवन बाधा रहित हो जाता है और सभी प्रकार के भय, चिंता व कष्‍टों से मुक्ति मिल जाती है। रुद्राभिषेक का अर्थ है भगवान रुद्र का अभिषेक अर्थात शिवलिंग पर रुद्र के मंत्रों के द्वारा अभिषेक करना।
Feb 26, 2019, 1:51 pm ISTFestivalsSarita Pant
Lord Shiva
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शिवरात्रि के दिन रुद्राभिषेक का सबसे बड़ा महत्व होता है। कहते है कि शिवलिंग की पूजा व अभिषेक करने से मनुष्‍य की हर मनोकामना पूर्ण हो जाती है और धन, संतान सुख, विद्या, ज्ञान, ऐश्‍वर्य, सद्बुद्धि, दीर्घायु एवं अंत में मोक्ष की प्राप्ति होती है। हिंदू शास्त्रों के मुताबिक जिस स्‍थान पर हमेशा शिवलिंग की उपासना व जल अभिषेक होता है,  वह स्थान तीर्थ से कम नहीं होता।

ऐसी भी मान्यता है कि शिवरात्रि, प्रदोष और सावन के सोमवार को यदि रुद्राभिषेक करेंगे तो जीवन में चमत्कारिक बदलाव महसूस करेंगे। मान्यता के अनुसार शिवलिंग ऊर्जा का स्रोत है और इससे निकलने वाली सकारात्‍मक ऊर्जा जीवन को खुशहाल बनाती है।

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शिवलिंग में मुख्‍यत:  तीन भाग होते हैं। सबसे निचला भाग सामान्‍यत: हमें दिखाई न‍हीं देता है। मध्‍य भाग समतल रहता है और ऊपर का भाग गोलाकार होता है, जिसकी पूजा होती है।सबसे नीचे का भाग ब्रह्मा जी को, मध्‍य भाग विष्‍णु जी को और सबसे ऊपर का भाग शिव को प्रतीकात्‍मक रूप से दर्शाता है। इस प्रकार शिवलिंग संपूर्ण ब्रह्मांण को समाहित किये हुये भगवान शिव की रचनात्मक और विनाशकारी शक्ति को दर्शाता है।

रुद्र भगवान शिव का ही प्रचंड रूप हैं। शिव जी को प्रसन्न करने का सबसे श्रेष्ठ तरीका है रुद्राभिषेक करना अथवा श्रेष्ठ ब्राह्मण विद्वानों के द्वारा कराना। वैसे भी भगवान शिव को जलधाराप्रिय माना जाता है क्योंकि वह अपनी जटा में गंगा को धारण किये हुए हैं।

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बता दें कि तांबे के पात्र में जल से ही शिव जी का अभिषेक करना चाहिए। इस बात का ध्यान रहे कि तांबे के लोटे में से अभिषेक नहीं करना चाहिए क्यों कि तांबे के लोटे में दूध का संपर्क उसे विष बना देता है इसलिए तांबे के पात्र में दूध का अभिषेक वर्जित होता है।

शिवजी का ध्यान मंत्र

ध्यायेन्नित्यं महेशं रजत गिरिनिभं चारुचंद्रा वतंसम्,
रत्ना कल्पोज्ज्वल्लंग परशु मृगवरा भीति हस्तं प्रसन्नम्।।
पद्मासीनं समंतात स्तुतं मरगणैर व्याघ्र कृतिं वसानम्,
विश्वाध्यं विश्व बीजं निखिल भयहरं पंच वक्रं त्रिनेत्रम्।।

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