Saturday, Dec 07, 2024 | Last Update : 10:33 PM IST
भारतरत्न सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या (एम. विश्वेश्वरैया) एक प्रख्यात इंजीनियर और राजनेता थे। इन्हे सर एमवी के नाम से भी जाना जाता है। मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया का जन्म कर्नाटक के कोलार जिले के चिक्काबल्लापुर में 15 सितंबर1860 को एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीनिवास शास्त्री और माता का नाम वेंकाचम्मा था। इनके पिता श्रीनिवास शास्त्री संस्कृत के एक विद्वान और आयुर्वेदिक चिकित्सक थे। मात्र 12 साल की उम्र में ही विश्वेश्वरैया के सर से पिता का साया हट गया था।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा कर्नाट के कोलार में हुई। उच्य शिक्षा के लिए इन्होने बैंगलोर के सेंट्रल कॉलेज में दाखिला लिया। धन के अभाव के कराण ये लोगों को ट्यूशन देते थे। इन्होने 1881 में बीए की परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया और उसके बाद मैसूर सरकार की मदद से इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए पूना के साइंस कॉलेज में दाखिला लिया। 1883 की एलसीई और एफसीई (आज के समय की BE) की परीक्षा में पहला स्थान प्राप्त करके अपनी योग्यता का परिचय दिया। इसी उपलब्धि के चलते महाराष्ट्र सरकार ने इन्हें नासिक में सहायक इंजीनियर के पद पर नियुक्त किया।
एम विश्वेश्वरैया हैदराबाद शहर के बाढ़ सुरक्षा प्रणाली के मुख्य डिजाइनर और मैसूर के कृष्णसागर बांध के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाई थी। मात्र 32 साल की उम्र में वो हैदराबाद शहर के बाढ़ सुरक्षा प्रणाली के मुख्य डिज़ाइनर थे और मुख्य अभियंता के तौर पर मैसोर के कृष्ण सागर बाँध के निर्माण में मुख्या भूमिका निभाई थी। जिसे वहां के सभी इंजीनियरों और वहां के सरकार ने बहुत पसंद किया।
1909 में मैसूर राज्य का मुख्य अभियन्ता (चीफ इंजीनियर) नियुक्त किया गया। विश्वेश्वरैया ने वहां की आधारभूत समस्याओं जैसे अशिक्षा, गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी को लेकर कुछ मूलभूत काम किये। सन् 1912 से लेकर 1918 तक उन्होंने अपने राज्य के लिए बहुत सामाजिक और आर्थिक कार्यों में योगदान दिया. राष्ट्र में उनके अमूल्य योगदान को देखते हुए सन् 1955 में एम विश्वेश्वरैया को भारत का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
भारत में उनका जन्मदिन अभियन्ता दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत के निर्माण में उनके योगदान को देखते हुए उन्हें वर्ष 1955 में देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से अलंकृत किया गया था। 101 वर्ष की उम्र में 14 अप्रैल 1862 को उनका निधन हो गया
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