भारत में 18वीं सदी के पहले मुद्रा के तौर पर सोने व चांदी के सिक्कों का प्रचलन था। मौर्य साम्राज में चंद्रगुप्त मौर्य ने चांदी, सोने, तांबे और सीसे के सिक्के चलवाए। छठी शताब्दी में सिक्कों को पुराण, कर्शपना या पना कहा जाता था।इस समय चांदी के सिक्के को रुप्यारुपा, सोने के सिक्के को स्वर्णरुपा, तांबे का सिक्के को ताम्ररुपा और सीसे के सिक्के को सीसारुपा कहा जाता था। इस दौर में सिक्कों का आकार अलग-अलग था और इन पर अलग-अलग चिह्न बने होते थे। हालांकि मुगल शासन के दौरान इन मुद्राओं में फेर बदल होते रहे। मुगल सामाज्य के दौरान शेरशाह सूरी ने 178 ग्रेन्स वजन का चांदी का सिक्का जारी किया था।
बहरहाल भारत में सिक्कों की जगह नोट ने तब लेनी शुरु की जब यूरोपीय कंपनियां व्यापार के लिए भारत में आईं तब उन्होंने अपनी सहूलियत के लिए यहां निजी बैंक की स्थापना की। और फिर क्या था समय के साथ साथ ये सिक्के इतिहास के पन्नों में कैद हो गए और इन मुद्रा की जगह कागजी मुद्रा ने ले ली।
वर्ष 1773 में जहां बैंक अॉफ बंगाल और बिहार की स्थापना हुई, वहीं 1886 में प्रेसिडेंसी बैंक की स्थापना हुई। कागज की मुद्रा को सबसे पहले बैंक ऑफ हिंदुस्तान, जनरल बैंक इन बंगाल, और द बंगाल बैंक ने जारी किया। अब जब देश में बैंक बढ़े, तो कागजी मुद्रा का चलन भी आम हो गया।
बैंक ऑफ बंगाल द्वारा तीन सीरीज में नोट छापे जाने लगे। इनमें पहली सीरीज एक स्वर्ण मुद्रा के रूप में छापी गयी यूनिफेस्ड सीरीज थी। यही सीरीज कलकत्ता में सिक्सटीन सिक्का रुपये के तौर पर छापी गयी। दूसरी सीरीज कॉमर्स सीरीज थी, जिस पर एक तरफ नागरी, बंगाली और उर्दू में बैंक का नाम लिखने के साथ ही एक महिला की तसवीर भी छपी थी और दूसरी तरफ बैंक का नाम लिखा था। तीसरी सीरीज 19वीं सदी के अंत में छापी गयी, जिसे ब्रिटैनिका सीरीज कहा गया, उसके पैटर्न में बदलाव हाेने के साथ ही कई रंगों का प्रयोग किया गया।
आजादी के बाद पहली बार एक रुपए का नोट छापा गया था। वर्ष 1949 में स्वतंत्र भारत का पहला नोट एक रुपये की मुद्रा के रूप में छापा गया। इसके ऊपर सारनाथ के सिंहों वाले अशोक स्तंभ की तसवीर थी जो बाद में भारत का राष्ट्रीय चिह्न भी बना। नहीं पढ़ पानेवाले लोगों की सहूलियत के लिए 1960 के दशक में अलग-अलग रंगों में नोट छापे जाने लगे।