मणिकर्णिका घाट का इतिहास, जहां चिता की आग कभी ठंडी नहीं होती

Aazad Staff

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भारत की पवित्र नगरी काशी (बनारस) को हिंदू धर्म में बेहद महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यहां स्थित मणिकर्णिका घाट के विषय में कहा जाता है कि यहां जलाया गया शव सीधे मोक्ष को प्राप्त होता है, उसकी आत्मा को जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है।

काशी में स्थित मणिकर्णिका घाट शमशान घाटों में से एक है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार इस घाट को पवित्र नदियों का पवित्र घाटा माना जता है। इस घाट में स्नान करना पुण्य का काम मना गया है। इस घाट का इतिहास बहुत पुराना है। कहते है कि इस घाट पर चिता की आग कभी शांत नहीं होती। आय दिन इस घाट पर 300 चिंताएं जलती है। हिंदू मान्यता के मुताबिक ऐसी मान्यता है कि यहां पर जलाए गए इंसान को मौक्ष की प्राप्ति होती है। इसके साथ ही आत्मा को जीवन-मरण के चक्र से मुक्ति मिलती है।

भगवान भोलेनाथ को समर्पित, काशी को मोक्ष की नगरी कहा जाता है।इश्वर पर आस्था रखने वाले लोगों की ये इच्छा रहती है कि मृत्यु के बाद उनकी लाश को इस घाट पर जलाया जाए इस घाट का निर्माण मगध के राजा ने करवाया था।

इस घाट से जुड़ी कथा -

इस स्थान से जुड़ी अनेक पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं जिनमें से एक शक्ति स्वरूपा पार्वती के कान की बाली का गिरना है। कहा जाता है जब पिता से आक्रोशित होकर आदि शक्ति सती हुईं तब उनके कान की बाली इस स्थान पर गिर गई थी। जिसके बाद इस श्मशान का नाम मणिकर्णिका घाट पड़ा।

ऐसी भी मान्यता है कि भगवान शिव और पार्वती के स्नान के लिए यहां विष्णु जी ने कुआं खोदा था, जिसे लोग अब मणिकर्णिका कुंड के नाम से भी जानते हैं। जब शिव इस कुंड में स्नान कर रहे थे, तब उनका एक कुंडल कुएं में गिर गया तब से इस जगह को मणिकर्णिका घाट कहा जाने लगा।

कहा जाता है कि भगवान शिव ने मणिकर्णिका घाट को अनंत शांति का वरदान दिया है। लोगों का यह भी मानना है कि यहां हजारों साल तक भगवान विष्णु ने भगवान शिव की आराधना की थी और ये प्रार्थना की थी कि सृष्टि के विनाश के समय भी काशी (जिसे पहले वाराणसी कहा जाता था) को नष्ट न किया जाए। श्री विष्णु की प्रार्थना से प्रसन्न होकर भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती के साथ काशी आए और उन्होंने भगवान विष्णु की मनोकामना पूरी की। तभी से यह मान्यता है कि वाराणसी में अंतिम संस्कार करने से मोक्ष (अर्थात व्यक्ति को जीवन-मरण के चक्र से छुटकारा मिल जाता है) की प्राप्ति होती है।

चैत्र के सातवें नवरात्रि में श्मशान महोत्सव मनाया जाता है -

पंद्रहवीं शताब्दी में अकबर के नवरत्नों में से एक राजा मानसिंह ने काशी के देव भगवान शिव के मंदिर की मरम्मत करवाई। इस शुभ अवसर पर राजा मानसिंह बेहतरीन कार्यक्रम का आयोजन करना चाहते थे लेकिन कोई भी कलाकार यहां आने के लिए तैयार नहीं हुआ। श्मशान घाट पर होने वाले इस महोत्सव में थिरकने के लिए नगर वधुएं तैयार हो गईं। इस दिन के बाद धीरे-धीरे कर यह परंपरा सी बन गई और तब से लेकर अब तक चैत्र के सातवें नवरात्रि की रात हर साल यहां श्मशान महोत्सव मनाया जाता है। यह महोत्सव इतना लोकप्रिय हो गया कि बड़े-बड़े महानगरों से वेश्याएं आती है और ईश्वर को प्रशन करने क लिए नाचती गाती है। यहां वेश्याएं ईश्वर से दुआ करती हैं कि अगले जन्म में उन्हें इस कदर जिल्लत भरी जिन्दगी से मुक्ति मिले ।

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