डॉ. विजया सिन्हा विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत

Aazad Staff

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डॉ विजया सिन्हा ने अपने करियर की शुरुआत साठ के दशक में की थी, उस समय जब भारत में महिला स्नातक बहुत कम थीं। उनकी कहानी आज विज्ञान में भारतीय महिलाओं के लिए किसी प्रेरणा से कम नहीं है।

डॉ. विजया सिन्हा का जन्म १९९४ में बिहार के एक रूढ़िवादी मध्यम वर्ग परिवार में हुआ था। उस समय लड़कियों के लिए शिक्षा इतना महत्वपूर्ण नहीं समझा जाता था। जिसके कारण दसवीं क्लास तक वे नियमित स्कूल नही जा सकी। उन्हें घर पर ही ट्यूशन टीचर और घर के बड़े सदस्य द्वारा पढ़ाया और सीखाया जाता था।

डॉ विजया काफी महत्वकांक्षी स्वभाव की थी। उन्होंने पहली बार अपने माता-पिता के सामने अपनी इच्छी प्रकट की। उन्होंने कहा कि मुझे मैट्रिक प्रथम श्रेणी में पास करना है। जिसके लिए उन्हें १०वीं व १२वीं में स्कूल रेगुलर जाना होगा। बहुत मुश्किल से घर वालों ने डॉ विजया को हिंदी मीडियम स्कूल से बायोलॉजी पढ़ने के लिए भेजा। १९५९ में उनकी महत्वाकांक्षा पूरी हुई जब उन्होंने हाई स्कूल प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया।

डॉ विजया का अगला कदम एक कॉलेज में दाखिला लेना था। उस समय के सर्वश्रेष्ठ कॉलेज में प्रवेश पाने के लिए उनका प्रतिशत बहुत अच्छा नहीं था, लेकिन उन्हें महिला कॉलेज में एडमिशन मिल गया। उन दिनों माता-पिता के लिए यह तय करना आम था कि एक महिला अपने जीवन के साथ क्या करेगी। डॉ विजया के पिता चाहते थे कि वे डॉक्टर बने। वैसे वह सभी क्लास को उपस्थित रहती थी लेकिन जीवविज्ञान प्रैक्टिकल में वे हिस्सा नहीं लेती थी क्योंकि उन्हें मेंढ़क नहीं काट सकती थी। कॉलेज प्रिंसिपल को उनके खिलाफ शिकायत मिली और उन्हें उनके कार्यालय में बुलाया गया। विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार के एक आवेदन के बाद किसी तरह उन्हें गणित स्ट्रीम में शिफ्ट होने में कामयाबी मिली।

इसके बाद उन्होंने और ज्यादा मेहनत करना शुरू कर दिया। मेहनत का नतीजा था कि उन्हेंने अच्छे मार्क्स प्राप्त हुए। जिसके बाद उन्हें पटना साइंस कॉलेज में पढ़ने का मौका मिला। उन्होंने १९६३ में फिजिक्स में ऑनर्स किया १९६५ में फिजिक्स से एमएससी किया जिसमें उन्होंने वायरलेस और रेडियो फिजिक्स एक महत्वपूर्ण पेपर था।

क्लास में अकेली गर्ल्स स्टूडेंट थी डॉ विजया

कॉलेज में अपने समय की कुछ घटनाओं को उन्होंने साझा करते हुए बताया कि मास्टर के दौरान क्लास में २९ लड़के थे और क्लास में वे अकेली लड़की। जिसके कारण क्लास में लेक्चरर की एंट्री के बाद ही वे क्लास में जाती थी। क्लास में किसी भी लड़के ने उनसे कभी बात नहीं कि और न ही उन्होंने । उस समय लड़कों से बात करना एक टैबू माना जाता था।

डॉ. विजया बताती है कि एक बार उनकी नोटबुक खो गई। नोटबुक खो जाने के कारण वे काफी रोने लगी। वे बस ये सोच रही थी कि नोट्स कैसे मिले। उन्होंने अपने पिता को इसके बारे में बताया। वे बॉयज हॉस्टल गए और एक लड़के से नोट्स उधार लेकर आए। डॉ. विजया को खेलना भी बहुत पसंद है। लेकिन वह कॉलेज के बाहर खेलों में भाग नहीं ले सकती थी। क्योंकि उनके भाई कहते थे कि आउटडोर गेम्स लड़कियों के लिए उपयुक्त नहीं है। इससे लड़कियों के प्रति प्रचलित सामाजिक दृष्टिकोण परिलक्षित हुआ।उन्होंने एम.एससी पहले डिवीजन के साथ विश्वविद्यालय में दूसरे स्थान पर रही।

पीएचडी - उस समय की महिलाओं के लिए एक असामान्य विकल्प

उस समय फिजिक्स में फर्स्ट क्लास डिग्री प्राप्त करना आसान बात नहीं थी। महिला के लिए ये एक असामान्य सी बात थी। इसलिए उन्हें तुंरत ही एक महिला कॉलेज में फिजिक्स पढ़ाने का मौका मिल गया। कुछ ही महीने बाद उन्हें पटना यूनिवर्सिटी के एमएससी फाइनल ईयर स्टूडेंट्स को न्यूक्लियर साइंस पढ़ाने को कहा गया। फर्स्ट क्लास M.Sc. भौतिकी में डिग्री असामान्य थी, और इसलिए मुझे तुरंत महिलाओं को पढ़ाने के लिए मौका मिल गया।

न्यूक्लियर फिजिक्स पढ़ाना कोई समस्या नहीं था लेकिन अंग्रेजी में पढ़ाना एक बड़ी समस्या थी। मैंने पूरा व्याख्यान (अंग्रेजी में मेरा पहला व्याख्यान) लिखा और हर एक पंक्ति को दिल से याद किया जो मैंने लिखा था क्योंकि मैं अंग्रेजी में बात नहीं कर पा रही थी।।

यद्यपि मुझे पढ़ाना पसंद था, मेरी रुचि पीएचडी शोध करने की थी, ताकि वे एक वैज्ञानिक बन सकें। पीएचडी कितना कठिन होगा इस बात से अंजान डॉ. विजया ने IIT में शामिल होने के लिए जूनियर रिसर्च फेलोशिप (JRF), CSIR के लिए आवेदन कर दिया। उस समय रिटर्न और ऑरल टेस्ट लिया गया था। और मेरा मानना था कि एग्जाम में ज्यादा अच्छा नहीं गया था। लेकिन दो महीने बाद मेरे पास एक चिठ्ठी आई जिसमें लिखा था क्या आप आईआईटी ज्वाइन करना चाहती है। लेटर पढ़ने के बाद वह हैरान भी थी और खुश भी। उन्होंने डिसिजन लेने में तनिक भी देर नही कि। इस तरह डॉ.विजया १९६६ में सॉलिड स्टेट के एक टॉपिक में अपनी पीएचडी पूरी की।

कार्य और विवाह की चुनौती को हल करना

इस बीच मेरी शादी १९६९ में तय हो गई थी। यहाँ मैं यह बताना चाहूँगा कि एक महिला वैज्ञानिक के लिए शादी इतनी आसान नहीं था। मेरे माता-पिता को मेरे लिए एक उपयुक्त वर
खोजने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा। उसके बाद उन्होंने डॉ.सिन्हा की शादी का विचार लगभग छोड़ ही दिया था। लेकिन एक बार फ्लाइट में उड़ान भरने के दौरान वे डॉ.सिन्हा के एक टीचर के पास बैठे थे। उन्होंने अपने बहनोई के बारे में बताया जो आईएएस अफसर थे। इस तरह दोनों की शादी तय हो गई।

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