बिरसा मुंडा का जन्म 1875 ई. में झारखण्ड राज्य के राँची में हुआ था। उनके माता पिता, चाचा, ताऊ सभी ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था। बिरसा के पिता 'सुगना मुंडा' जर्मन धर्म प्रचारकों के सहयोगी थे।
बिरसा मुड़ा का बचपन अपने घर में बकरियों को चराते हुए बीता। इन्होने 'चाईबासा' के जर्मन मिशन स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। परन्तु स्कूलों में उनकी आदिवासी संस्कृति का जो उपहास किया जाता था, वह बिरसा को सहन नहीं हुआ। इस पर उन्होंने भी पादरियों का और उनके धर्म का भी मजाक उड़ाना शुरू कर दिया। जिसके बाद ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें स्कूल से निकाल दिया।
बिरसा मुंडा को लेकर लोगों में एक ऐसी धाराणा बन गई थी जिसे कारण बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजा जाने लगा। कहा जाता है कि कि 1895 में कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएँ घटीं, जिसके बाद बिरसा को भगवान का उवतार मानने लगे। लोगों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं।
अंग्रेजों और जमींदारों के खिलाफ हथियार उठाने का बिरसा मुंड़ा के अनुयायीयों ने किया निश्चय-
बिरसा एक प्रभावशाली व्यक्तित्व के थे। मुंडा समाज में उनका प्रभाव असाधारण था।आदिवासी समुदाय के होने के कारण स्थानीय अधिकारी बिरसा के अनुयायियों को दण्डित करते थे और उन पर अत्याचार करने लगे थे और ये अत्याचार बढ़ता ही जा रहा था। जिसके कारण बिरसा के अनुयायीयों ने अंग्रेजों और जमींदारों के खिलाफ हथियार उठाने का निश्चय किया। सन 1895 में बिरसा मुंडा ने देश में अकाल की स्थिती होने के बावजूद भी बकाया वन राशि को लेकर अपना पहला आन्दोलन शुरू किया। अपने 25 साल के छोटे जीवन में बिरसा ने न सिर्फ आदिवासी चेतना को जागृत किया बल्कि सभी आदिवासियों को एक छत के नीचे एकजुट करने में काबिल हुए।
24 दिसम्बर 1899 को यह आन्दोलन आरम्भ हुआ। तीरों से पुलिस थानों पर आक्रमण करके उनमें आग लगा दी गई। सेना से भी सीधी मुठभेड़ हुई, किन्तु तीर कमान गोलियों का सामना नहीं कर पाये। बिरसा मुंडा के साथी बड़ी संख्या में मारे गए। उनकी जाति के ही दो व्यक्तियों ने धन के लालच में बिरसा मुंडा को गिरफ़्तार करा दिया।जिसके बाद जेल में 9 जून 1900 ई में उनकी मृत्यु हो गई।