संत चरणदास का जन्म स्वत १६६० मे मादो शुक्ल तृतीया मगलवार के दिन गाँव डेहरा मे जो राजस्थान के अलवर जिला मे स्थित है वहा हुआ था | आपके पिता श्री मुरलीधर साधु- स्वभाव के त्यागी व्रती वाले प्रभु भक्त थे | माता कुंजीदेवी निर्मलता और निशलता की मूर्ति थी | वे सेवा, सहनशीलता और नर्मता की देवी थी | पांच वर्ष की आयु से ही आपकी रसना पर ' राम-नाम' का जाप चडा रहता था | आपको पढने के लिये पाठशाला भेजा गया | अध्यापक ने पढाई मे उनकी रूचि उत्पन करने के लिये अनेक प्रत्यन किये | अध्यापक का हठ बढता देख कर एक दिन आपने कहा |
आल-जाल तू क्या पडावे |
कृष्ण नाम लिख क्यों न सिखावे ||
जो तुम हरी की भक्ति पदावु |
तो मोको तुम फेर बुलाओ ||
प्रभु नाम के जाप मे अधिक और पढाई लिखाई मे कम रूचि थी |
संत चरणदास जी को हर घाट मे परमात्मा के दर्शन होते थे |
इसलिये आप सबसे अपार क्षमा , सहनशीलता और नम्रता से पेश आते थे |
'लीला सागर ' के लेखक ने लिखा है -एक ब्राहमण सिपाही आपको सदा गालिया देता रहता था और धोखे बाज कहकर निंदा करता रहता था और धोखे बाज कहकर निंदा करता रहता था |एक दिन चरण दास जी प्रेमपूर्वक उसे पास बिठाकर उसका बहुत सम्मान किया और स्वादिष्ट भोजन खिलाकर पांच रुपये दक्षिणा मे दिये | यह देखकर सिपाही का मन मोम हो गया और वह आपका श्रदालु बन गया |
पांच रुपया कर मे दिवाई |
कहेप्रभु मो मन की पाई||
संत चरणदास जी ने डेल्ही मे कई ठिकाने बदले और कई आश्रम बनाये | आपने १२ - १४ वर्ष का समय बीरमदै मे बनाई गुफा मे व्यतीत किया | एक वर्ष अज्ञात वर्ष मे भी रहे | संत चरणदास आदि सन्तों ने अपनी वाणी मे नारी से दूर रहने का उपदेश दिया है उसका वास्तविक अर्थ काम की नीच प्रवर्ती से बचने का है |
नयी बस्ती से आप सुखदेव पुर आ गये जिसे उन दिनों नया शहर कहा जाता था | यह स्थान चांदनी चौक से पास मोहला बिल्लिमारा और हौजी काजी कई बीच मे है | चरणदास जी ने इसका नाम अपने सतगुरु कई नाम पर सुखदेव पुरा रखा पर आपकी प्रसिद्धी कई कारण इसका नाम मोहला चरणदास पड़ गया | आज भी यह स्थान दस बार अपना डेरा बदला आप डेल्ही कई अलग -अलग भागो मे रहकर अपने विचारो का प्रचार करना चाहते थे | दिल्ही मे निवास कई समय आप वृधावन, शाहजहानपुर, लखनऊ, पानीपत, करनाल और जयपुर आदि की यात्रा पर भी गये पर आपका असली कार्य छेत्र दिल्ही और उसकी आसपास का क्षेत्र ही रहा |
आपकी रचनाये
'माखन चोरी लीला'कलि नथन लीला
"श्रीघर ब्राहमण लीला' 'कुरुजैत्र लीला ' पांडाओ यज्ञ लीला आदि मे भगवान कृष्ण की महिमा की गयी है |
कुछ स्थानों पर कृष्ण और राधा की लीला का वर्णन है | संत चरणदास मुझे संसारिकता से हटाकर अपने चरणों मे निवास दिया और संसार मे अनाथ बनाई इस जीव को सनाथ बना ले |
"किरपा करी अनाथ पर तुम हो दीनानाथ " हाथ जोड़ मांगू यही, मम सिर तुम्हारा हाथ "
आपके परम शिष्यों रामरूप जी ,जोगजीत जी, सरस मादुरी शरण , सहजोबाई और दयाबाई ने अपनी रचनाओ मे बार बार गुरुदेव जी का यश गया है |
उन्होने गुरुदेव को लोहे को सोना बना देने वाला परस और बेकार वृक्षों को अपनी सुगंधी से सुगन्धित कर देने वाला चन्दन कहा है |
सतगुरु के प्रेम मे मगन सहजोबाई ने तो सतगुरु को हरी से भी ऊँचा दर्जा दिया है |
चरणदास पर तन मन वारू |
गुरु न तजू हरी कू तजि डारू ||
आपने ६९ वर्ष तीन महीने की उम्र भोग कर संवत १८३९ विक्रमी मे मार्गशीष सतमी को बुधवार कई दिन परम धाम पहुच गये | संत चरणदास जी की अंतिम यात्रा उनकी जीवन यात्रा से भी अधिक आशचर्य जनक थी | इतनी भीड़ कभी जीवन काल मे उनके चारो और नहीं थी जितनी अंतिम दर्शनों कई लिये मोजूद थी | दिल्ही कई सुलतान शाह आलम दितीय ने भी रास्ते मे सलैल्गढ़ मे आपके दर्शन किये |