सत्यजीत रे मशहूर फिल्मकार

Aazad Staff

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बॉलीवुड के जाने माने डॉयरेक्टरों में से एक सत्यजीत रे ने अपनी पहली फिल्म पथेर पांचाली से ही फिल्मी दुनिया में अपनी एक अलग पहचान बना ली। उनकी इस फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेस्ट ह्यूमन डॉक्यूमेंट्री का दर्ज़ा दिया गया था।

कोलकाता में २ मई १९२१ को सत्यजीत रे का जन्म हुआ था। सत्यजीत रे के बारे में ये बहुत कम ही लोग जानते है कि उन्होंने अपने करियर की शुरुआत महज एक चित्रकार के तौर पर की थी। बाद में फ्रांसिसी फिल्म निर्देशक जॉ रन्वार से मिलने और लंदन में इतालवी फिल्म लाद्री दी बिसिक्लेत फिल्म बाइसिकल चोर देखने के बाद फिल्म निर्देशन की ओर उनका रुझान हुआ।

इन्होंने सिनेमा जगत पर अपनी एक ऐसी छवी छोड़ी जिसे हर पीढ़ी याद करेंगी। सत्यजीत रे अपनी फिल्मों में वास्तविकता को बहुत ही बारीकी से दर्शाते थे। फिल्म ?पाथेर पांचाली? डॉक्यूमेंट्री के लिए १९९१ में ऑस्कर पुरस्कार से नवाज़ा गया। इतना ही नहीं फिल्म ?पाथेर पांचाली? (१९५५) और अपू त्रयी को दुनिया भर के फिल्म फेस्टिवल्स में सैकड़ों अवॉर्ड मिले हैं।

सत्यजीत रे मशहूर फिल्मकार के साथ साथ बेहतरीन विज्ञापन निर्माता, ग्राफिक डिज़ाइनर, चित्रकार और लेखक भी थे। ३६ वर्षों में पाथेर पांचाली (१९५५) से लेकर आगंतुक (१९९१) तक सत्यजीत रे ने ३६ फिल्में बनाई हैं। इनमें कुछ वृत्तचित्र हैं, फीचर फिल्में और लघु फिल्में शामिल हैं।

सत्यजीत को फिल्मों के लिए कई राष्ट्रीय के साथ साथ ११ अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया। भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाने का श्रेय सत्यजीत रे को ही जाता है। फिल्मी जगत के सबसे बेहतरीन निर्देशकों में शुमार रे को १९९२ में लाइफटाइम अचीवमेंट की श्रेणी में ऑस्कर से सम्मानित किया गया था।

जीवन से जुड़ी बातें?
छह साल की उम्र में पिता के इंतक़ाल के बाद सत्यजीत रे के दादाजी की प्रिंटिंग प्रेस बंद हो चुकी थी। पैसों की तंगी के कारण उन्हे पैतृक गांव छोड़कर मामा के घर बालगंज जाना पड़ा। इसी के साथ इनकी पत्रिका ?संदेश? भी गुमनामी की दराज़ों में दफ़न हो गई। इस पत्रिका को उन्होंने एक बार फिर से १९६० में शुरु किया। इस पत्रिका ने सफलता के नए आयाम रचे। कवि सुभाष मुखर्जी को इसका संयुक्त एडिटर नियुक्त किया गया। रे ने इसमें ख़ूब लिखा, ख़ासकर बच्चों के लिए लिखा। जासूसी कहानियां, साइंस फिक्शन, लघु कथाओं ने इतनी प्रसिद्धी पाई कि यह पत्रिका हर घर में पढ़ी जाने लगी। अपने जीवन में संघर्ष का सामना करने वाले सत्यजीत रे ने कभी हार मानना नहीं सखा था। अपने कड़े परिश्रम के साथ वे हमेशा ही नई ऊंचाईयों को छूते चलें गए। और २३ अप्रैल १९९२ को उन्होंने इस दुनिया को हमेशा हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।

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