23 मार्च 1931 को लाहौर में देश के तीन शूरवीरों को फांसी के तबके पर चढ़ा दिया गया। देश आज भी इनकी शूरवीरता को नमन करता है। ये पहला ऐसा मौका था जब देश में किसी क्रांतिकारी को रात में फांसी दी गई थी।
भगत सिंह ने देश की आज़ादी के लिए 23 साल की उम्र में हंसते-हंसते अपने जीवन का बलिदान दे दिया। तभी से हर साल 23 मार्च को इन तीन शहीदों की याद में शहीदी दिवस मनाया जाता है।
17 दिसंबर 1928 को लाहौर में सांडर्स की हत्या और 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली की केंद्रीय असेंबली में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के बम फेंके जाने के बाद भगत सिंह भारत ही नही बल्की दुनिया भर में एक नई पहचान बना लिए। उनके नाम की गूंज दुनिया भर में गूंजने लगी।
1929 से 1934 तक के पांच वर्षों में हिंदुस्तान की अनेक जबानों, खास कर हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी के अखबारों/पत्रिकाओं, किताबों में भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी आंदोलनों संबंधी इतनी सामग्री छपी कि उनमें से काफी प्रकाशनों पर ब्रिटिश सरकार ने पाबंदी लगाई, अनेक लेखकों/संपादकों को बरसों की जेल की हवा खिलाई।
आज से 87 साल पहले ब्रिटिश सरकार ने सांडर्स हत्याकांड में इन तीनों क्रांतिकारियों को दोषी माना था और लाहौर के सेंट्रल जेल में फांसी दे दी थी। क्रांतिकारी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को शहीद का दर्जा देने की मांग कई बार उठ चुकी है। इसे लेकर तीनों ही परिवारों के सदस्य, रिश्तेदार अलग-अलग स्तर पर प्रयास करते रहे हैं। लेकिन अभी तक इन्हें शहीद का दर्जा नहीं मिल पाया है।