मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल आज नई शिक्षा नीति पर विवाद के साथ शुरु हुआ। शिक्षा नीति के मसौदे में दक्षिण भारतीय राज्यों में हिंदी की अनिवार्ता वाले शर्त को हटा दिया गया है। दरसल शिक्षा नीति के मसौदे में दक्षिण के राज्यों में तीन भाषा फॉर्मूला लागू करने के बाद से ही गैर हिंदी भाषी राज्यों ने इसका विरोध करना शुरु कर दिया था। विरोध के बाद सरकार ने इस मसौदे पर बदलाव किया है, जिसमें हिंदी के अनिवार्य होने वाली शर्त को हटा दिया गया।
सोमवार सुबह भारत सरकार ने अपनी शिक्षा नीति के पहले तीन भाषा फॉर्मूले में अपनी मूल भाषा, स्कूली भाषा के अलावा तीसरी भाषा के तौर पर हिंदी को अनिवार्य करने की बात कही थी लेकिन सोमवार को जो नया ड्राफ्ट आया है, उसमें फ्लेक्सिबल शब्द का इस्तेमाल किया गया है। यानी अब स्कूली भाषा और मातृ भाषा के अलावा जो तीसरी भाषा का चुनाव होगा, वह स्टूडेंट अपनी मर्जी के अनुसार चुन सकेंगे। इसका मतलब ये हुआ की अब कोई भी तीसरी भाषा किसी पर थोपी नहीं जा सकेगी। इसमें छात्र अपने स्कूल, टीचर की सहायता ले सकता है, यानी स्कूल की ओर से जिस भाषा में आसानी से मदद की जा सकती है छात्र उसी भाषा पर आगे बढ़ सकता है।
शिक्षा नीति से पहले आई कस्तूरीरंगन समिति ने अपनी रिपोर्ट में सरकार से अपील की है कि राज्यों को हिंदीभाषी, गैर हिंदीभाषी के तौर पर देखा जाना चाहिए। अपील की गई है कि गैर हिंदीभाषी राज्यों में क्षेत्रीय और अंग्रेजी भाषा के अलावा तीसरी भाषा हिंदी लाई जाए और उसे अनिवार्य कर दिया जाए।
बहरहाल भाषा का ये विवाद पूरी तरह से राजनीतिक हो गया है। दक्षिण भारत की राजनीतिक पार्टियों ने केंद्र सरकार पर हिंदी थोपने का आरोप लगाया है, तो वहीं सरकार सफाई दे रही है कि अभी ये सिर्फ ड्राफ्ट है, फाइनल नीति नहीं है। सरकार की ओर से आश्वासन दिया गया है कि किसी पर भी भाषा थोपी नहीं जाएगी, हर किसी से बात करने के बाद ही कोई फैसला लिया जाएगा।