शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां जब तक जीवित रहे तब तक वो लोगों के बीच में भाईचारे, प्रेम और एकता का पाठ पढ़ाते रहे लेकिन आज जब वो हमारे बीच में नहीं है तब भी वो लोगों के दिलों में वो ही पाठ की अलख जगाये हुए हैं। बिस्मिल्ला खां का जन्म बिहारी मुस्लिम परिवार में पैगम्बर खाँ और मिट्ठन बाई के यहाँ बिहार के डुमराँव की भिरंग राउत की गली नामक मोहल्ले में हुआ था।उनके दादा रसूल बख्श ने उनका नाम बिस्मिल्लाह रखा था जिसका मतलब होता है "अच्छी शुरुआत! या श्रीगणेश"।
मुस्लिम होने के बावजूद बिस्मिल्ला खां काशी विश्वनाथ मंदिर में जाकर शहनाई बजाया करते थे, उन्होंने हमेशा ही कहा कि मजहब कभी बैर करना नहीं सिखाता। बिस्मिल्ला खां देश के चुनिंदा कलाकारों में से एक हैं जिन्हें आजदी के मौके पर साल 1947 में लाल किले में शहनाई बजाने का मौका मिला था। 2001 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान, भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की आखिरी इच्छा, शहीदों को श्रद्धांजलि के रूप में भारत गेट में प्रदर्शन करने में सक्षम होने के कारण, वह घातक हृदय की गिरफ्तारी के बाद अनुपलब्ध रहे।
साल 2001 में बिस्मिल्ला खां को देश के सबसे बड़े अवार्ड भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। 21 अगस्त 2006 को बिस्मिल्ला खां ने दुनिया को अलविदा कह दिया, वो चार साल से कार्डियेक रोग से परेशान थे। भारत सरकार ने उनके निधन को राष्ट्रीय शोक घोषित किया था और उन्हें 21 तोपों की सलामी दी गई थी।