पौंगल दक्षिण भारत में तमिलनाडु के साथ साथ केरल, आध्रप्रदेश में मनाया जाने वाला एक प्रमुख त्यौहार है। पौंगल का वास्तविक अर्थ होता है उबालना। हालांकि इसका दूसरा अर्थ नया साल भी होता है। दक्षिण भारत में गुड और चावल उबालकर सूर्य को चढ़ाये जाने वाले प्रसाद का पौंगल नाम से भी जाना जाता है।
मान्यता के मुताबिक पौंगल पर्व का आरंभ 200 से 300 ईस्वी ईशा पूर्व का माना जाता है। उन दिनों द्रविण शस्य उत्सव के रूप में इस पर्व को मनाया जाता था। तिरुवल्लुर के मंदिर में प्राप्त शिलालेख में लिखा गया है की किलूटूँगा राजा पौंगल के अवसर पर जमीन और मंदिर गरीबों को दान में दिया करते थे। ऐसा भी माना गया है कि उस दौर में जो व्यक्ति सबसे ज्यादा शक्तिशाली होता था उसे 'पोंगल' पर्व, के दिन कन्याएं वरमाला डालकर अपना पति चुनती थी।
पोंगल से जुड़ी कथा -
पोंगल पर्व भगवान शिव से संबंद्ध है।मट्टू भगवान शंकर का बैल है जिसे एक भूल के कारण भगवान शंकर ने पृथ्वी पर भेज दिया और कहा कि वह मानव जाति के लिए अन्न पैदा करे। तब से मट्टू पृथ्वी पर रह कर कृषि कार्य में सहायता कर रहा है। इस दिन किसान अपने बैलों को स्नान कराते है। उनकी सींगों में तेल लगाते है। और अन्य प्रकार से उनकी पूजा करते है। बैलों के साथ साथ इस दिन गाय और बझड़ो की भी पूजा की जाती है।
काली पूजन से जुड़ी कथा -
मदुरै के पति-पत्नी कण्णगी और कोवलन से जुड़ी है। एक बार कण्णगी के कहने पर कोवलन पायल बेचने के लिए सुनार के पास गया। सुनार ने राजा को बताया कि जो पायल कोवलन बेचने आया है वह रानी के चोरी गए पायल से मिलते जुलते हैं।
राजा ने इस अपराध के लिए बिना किसी जांच के कोवलन को फांसी की सजा दे दी। इससे क्रोधित होकर कण्णगी ने शिव जी की भारी तपस्या की और उनसे राजा के साथ-साथ उसके राज्य को नष्ट करने का वरदान मांगा। जब राज्य की जनता को यह पता चला तो वहां की महिलाओं ने मिलकर किलिल्यार नदी के किनारे काली माता की आराधना की। अपने राजा के जीवन एवं राज्य की रक्षा के लिए कण्णगी में दया जगाने की प्रार्थना की। माता काली ने महिलाओं के व्रत से प्रसन्न होकर कण्णगी में दया का भाव जाग्रत किया और राजा व राज्य की रक्षा की। तब से काली मंदिर में यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। इस तरह चार दिनों के पोंगल का समापन होता है।